क्या छत्तीसगढ़ को सिक्किम की राह ले जा पाएंगे भूपेश बघेल

छत्तीसगढ़ में गोधन योजना की शुरुआत हो गई। गोबर खरीदने वाला छत्तीसगढ़ देश का पहला राज्य बन गया। इस योजना को लेकर कई तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं। कुछ सवाल वाजिब भी होंगे, कुछ राजनीति से प्रेरित भी। ज़ाहिर तौर पर जहां बेरोजगारी और गरीबी मुंह बाए खड़ी हो वहां गोबर खरीदकर क्या होगा? ये एक कॉमन सवाल है, जो बेरोजगार और विपक्ष के नेता दोनों उठा रहे हैं, उठाने भी चाहिए। बावजूद इसके, गोधन योजना का दूरगामी परिणाम राज्य के आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक सभी दृष्टिकोण से सुखद दिखाई देता है।
छत्तीसगढ़ में आज कृषि योग्य भूमि घटती जा रही है। हम मान सकते हैं कि आज की स्थिति में 56 लाख हेक्टेयर से 58 लाख हेक्टेयर के बीच यह भूमि है। एक तरफ जनसंख्या का बढ़ता दबाव और दूसरी तरफ खेती की जमीन का लगातार कम होना, दोनों चीजें आने वाले वक्त में खाने का संकट पैदा करेगी। हमारी बहुत अधिक जमीन बंजर में तब्दील होती जा रही है और ऐसा रासायनिक खादों के बहुत ज्यादा इस्तेमाल का असर है, जैसा कि विशेषज्ञ कहते हैं। जल स्तर लगातार घटता जा रहा है, प्रदूषण की समस्या अलग। पेस्टिसाइट के इस्तेमाल से होने वाले नुकसान को आज एक बच्चा भी बता सकता है। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब हम छोटे थे, तो बस वाले से पेंड्रा से चावल मंगवाते थे और दूसरों को बताते भी थे कि वहां गोबर खाद वाला दूबराज चावल मिलता है। आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि उसकी ख़ुशबू का।
बहरहाल, गोधन योजना को सिर्फ गोबर खरीदी योजना से जोड़कर नहीं देखना चाहिए। एक वैचारिक क्रांति के रूप में इसे इंप्लीमेंट किया जाए, तो छत्तीसगढ़ सिक्किम की राह पर चल सकता है। 2000 के आसपास सिक्किम भी उन्हीं कृषि बीमारियों से जूझ रहा था, जिनसे आज छत्तीसगढ़ जूझ रहा है। पैदावार कम थी, आर्थिक समस्या से राज्य जूझ रहा था, बेरोजगारी थी। आख़िरकार 2003 में सिक्किम ने खुद को बदलने का संकल्प लिया और प्रण किया कि अब आर्गेनिक स्टेट बनना है। 2016 में उसने ऐसा कर दिखाया। 13 साल लगे। अब सिक्किम भारत ही नहीं, दुनिया का ऐसा पहला राज्य है जहां पूर्ण रूप से ऑर्गेनिक खेती होती है। यूएनओ ने सिक्किम को इसके लिए सम्मानित भी किया। लेकिन इस सम्मान का संघर्ष इतना आसान तो नहीं था।

पहले एक नज़र सिक्किम की यात्रा पर डालें

2003 में जब सिक्किम ने आर्गेनिक स्टेट बनने का संकल्प किया, तो सिक्किम के हालात भी अच्छे नहीं थे। उपजाऊ जमीन कम होती जा रही थी। पॉलीथिन और अन्य रासायनिक पदार्थों के उपयोग का दुष्प्रभाव दिख रहा था। तब सिक्किम ने कुछ सख्त कदम उठाए। जानिए क्या थे वे कदम..

  1. केमिकल यानी रासायनिक कीटनाशकों की जगह जैविक खाद के इस्तेमाल पर बल दिया। केमिकल खाद और कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगा दिया। जो इस कानून का उल्लंघन करता, उस पर एक लाख का जुर्माना और महीने भर की कैद का प्रावधान कर दिया।
  2. सिक्किम जैविक बोर्ड का गठन भी किया था। इसमें देश-विदेश के कई कृषि विकास और शोध से जुड़ी संस्थाओं के साथ साझेदारी भी की गई। इसमें स्विट्ज़रलैंड के जैविक अनुसंधान को भी शामिल किया गया था।
  3. सिक्किम में 8 लाख 35 हज़ार हेक्टेयर ज़मीन पर जैविक खेती हुई, जिससे करीब 4 लाख किसानों को फायदा पहुंचा है। पहले 50 हज़ार हेक्टेयर ज़मीन को कवर करने के लक्ष्य रखा गया, करीब ढाई हज़ार फार्मर इंटरेस्ट ग्रुप्स बनें जिनसे लगभग 45 हज़ार किसान जैविक योजना से जुड़े।
  4. जैविक खेती के लिए गांव पंचायतों को क्लस्टर के रूप में विकसित किया गया। इस तरह सिक्किम की प्लानिंग काम आई।
  5. ऑर्गेनिक फार्मिंग को लेकर जागरूकता फैलाई गई। इसके लिए ऑर्गेनिक फार्म्स, ऑर्गेनिक स्कूल और घर-घर में जाकर ऑर्गेनिक खादों से लोगों को अवगत करवाया। साथ ही, खेती के लिए पोषण प्रबंधन, तकनीक, कीट प्रबंधन और प्रयोगशालाएं भी शुरू की।
  6. अम्लीय भूमि उपचार, जैविक पैकिंग समेत अनेकों जागरूकता अभियान चलाएं। दिलचस्प बात तो यह है कि सिक्किम की आय और उत्पादन में कमी देखने को मिल रही थी, जिसके बाद राज्य ने ऑर्गेनिक खेती में शिफ्ट होने का फैसला लिया था।
  7. पूर्ण रूप से ऑर्गेनिक राज्य में तब्दील होने की राह आसान नहीं थी। राज्य सरकार ने इसके लिए पहले गाँवों को गोद लिया और उन्हें बायो-विलेज में तब्दील करने का संकल्प किया।
  8. उसके बाद खाद संबंधी दिए जा रहे कोटे को बंद किया गया और सभी को ऑर्गेनिक खाद उपलब्ध कराए गए। साथ ही, लोगों को खेती के लिए जैविक प्रमाण पत्र भी दिए गए।

इन सब कदमों को उठाने के बाद से सिक्किम की खेती का दायरा बढ़ गया। वहां 22 लाख हेक्टेयर से ज्यादा उत्पादन हुआ। संयुक्त राज्य ने इस पुरस्कार को देते समय सिक्किम के इसे भूख और गरीबी से लड़ने और पर्यावरण की रक्षा करने वाला कदम बताया था। ये सारी बातें पूजा यादव ने अपने एक रिसर्च में लिखी हैं, जिसे उन्होंने वेबसाइट पर भी अपलोड किया है।

जैविक खेती (Organic Farming) है क्या?

क्या जैविक खेती कोई नई चीज़ है? बिल्कुल नहीं। इससे पहले हमारे पूर्वज इसी खेती का इस्तेमाल किया करते थे। हरित क्रांति के दौर में उत्पादन बढ़ाने के लिए जरूर रासायनिक खाद का इस्तेमाल किया गया, लेकिन बीसवीं सदी के अंत तक इसके दुष्परिणाम भी देखने को मिले। आज जैविक खेती की मांग लगातार बढ़ती जा रही है। क्योंकि यह पर्यावरण को भी शुद्ध रखता है और भूमि का प्राकृतिक स्वरूप बना रहता है। मिट्‌टी अधिक उपजाऊ बनती है। जैविक खेती में गोबर खाद, कम्पोस्ट खाद, हरी खाद, बायो-पेस्टिसाइड, केंचुआ खाद, नीम खली, लेमन ग्रास और फल के अवशेष का प्रयोग किया जाता है। इसमें जीवाणु कल्चर फॉलो होता है।

अब फिर से लौटें छत्तीसगढ़ पर

छत्तीसगढ़ में जैविक खेती को बढ़ावा देने का पहला चरण साबित हो सकता है गोधन योजना। गोबर खरीदकर खाद बनाना और उसे किसानों तक उपयोग के लिए पहुंचाने की प्रक्रिया का सरल होना बहुत जरूरी है। प्रक्रिया में सरकारीकरण जैविक स्टेट की तरफ बढ़ते कदम को पहले ही चरण में रोक देगा। सरकार ने बाकायदा इसके लिए आर्थिक इंतजाम किए हैं। शराब पर 5 रुपए सेस लगाकर और अन्य तरह से इसके लिए फंड जुटाए जाएंगे, लेकिन इनका क्रियान्वयन ही सबकुछ तय करेगा।
सिक्किम और छत्तीसगढ़ में मूल अंतर है फसलों का। छत्तीसगढ़ में धान की फसल मुख्य रूप से ली जाती है। छत्तीसगढ़ का किसान ज्यादा से ज्यादा धान उगाकर ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना चाहता है। जैविक खेती के उपयोग के क्वालिटी तो अच्छी होगी, लेकिन उत्पादकता में कमी होगी। ऐसा पहले के उदाहरण और विशेषज्ञ बताते हैं कि जैविक खेती से उतना प्रोडक्शन नहीं होता जितना रासायनिक उर्वरा से होता है। ऐसे में क्या सरकार एमएसपी बढ़ाएगी, ताकि किसान कम उत्पादन में भी उतना पैसा कमा सकें, जितना ज्यादा धान पैदा कर कमा रहे हैं। दूसरी बात भंडारण की है। आज हम धान का भंडारण अच्छी तरह नहीं कर पा रहे। छत्तीसगढ़ में पशुधन तकरीबन 1 करोड़ से ज्यादा है। इनमें सिर्फ गौवंशी और भैंसवंशी शामिल है। मान लीजिए इनके आधे का गोबर ही सरकार खरीदती है, भंडारण कहां होगा, कैसे होगा, एक बड़ा सवाल खड़ा होता है। एक सवाल यह भी मुंह बाए खड़ा है कि देश की पहली ऐसी योजना है जिसका बजट तय नहीं है। बजट के लिए फिलहाल शराब पर सेस लगा है और कहां कहां से कैसे आर्थिक प्रबंधन होगा, यह आने वाला समय बताएगा। एक अनुमान के मुताबिक सालाना 4 हजार करोड़ रुपए लग सकते हैं गोबर खरीदी में। (यह अनुमान इस तरह है कि एक करोड़ में से 50 लाख पशुओं का गोबर ही खरीदते हैं। एक पशु तकरीबन 10 किलो गोबर देता है, तो 5 करोड़ किलो गोबर रोज का, यानी रोज का 10 करोड़ रुपए, महीने का 300 करोड़ तो साल का 3600 करोड़ करीब-करीब)
इतना पैसा और समय लगाने के बाद जो बड़ी बात ध्यान देने की है, वो यह कि कंपोज्ड खाद का उपयोग करने के लिए किसानों को किस तरह तैयार किया जाएगा। क्या नियम बनाएंगे, कि रासायनिक खाद का उपयोग न किया जाए, क्या सिक्किम की तरह रासायनिक खाद के उपयोग पर जुर्माना-हर्जाना इत्यादि का भविष्य में प्रावधान किया जा सकता है? क्या इससे पहले छत्तीसगढ़ में कंपोज्ड खाद सरकारी स्तर पर नहीं बनाए जा रहे थे? जहां तक मेरी जानकारी है हर पंचायत में कंपोज्ड खाद बनाने के लिए स्वसहायता इकाई काम कर रही थी, लेकिन ये फेल हो गई। इसके फेल होने का कारण भी देखना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि यह योजना बहुत दूर की सोच को रेखांकित करती है और धान की बालियों को सोने की बालियों में तब्दील करने की क्षमता भी रखती है, लेकिन जिस तरह सारी सरकारी योजनाओं का दम क्रियान्वयन तोड़ देती है, उसी तरह यह विज़न भी दम न तोड़े।
सरकार एक गलती बिल्कुल न करे कि इस योजना को किसी भी तरह से रोजगार के रूप में परिभाषित करे। यह किसी भी रूप से ऐसा नहीं लगना चाहिए कि सरकार इसके जरिए लोगों को पैसा दे रही है। यह योजना तभी सफल होगी जब लोगों के ज़ेहन में यह बिठाया जाए कि यह हमारी जमीन को बहुत अधिक उपजाऊ बनाने के लिए है, यह हमारे छत्तीसगढ़ के किसानों को आने वाले समय में अधिक लाभ दिलाने के लिए है, यह हमारी छत्तीसगढ़ की जनता के स्वास्थ्य के लिए है, यह योजना हमारे छत्तीसगढ़ के पर्यावरण के लिए है, यह योजना हमारी छत्तीसगढ़ की बदलती कृषि पद्धति के लिए है, तब जाकर इसके बारे में जो परसेप्शन बनाया जा रहा है, वो टूटेगा।
यदि योजना को पैसों से जोड़ेंगे, तो बेरोजगार सवाल उठाएंगे ही। बेरोजगारों का सवाल उठाना लाजिमी है, लेकिन बेरोजगारी को अभी इससे जोड़कर नहीं देखना चाहिए। आने वाला वक़्त निश्चित ही प्रदेश को आर्थिक फायदा देगा, इसमें संशय नहीं है। साल 2025 तक देश में जैविक खेती का करीब 75 हज़ार करोड़ रुपए का कारोबार होने का अनुमान है। ऐसे में, इसमें आधुनिक तकनीकों के प्रयोग के साथ-साथ लोगों को जैविक खेती को लेकर प्रशिक्षण देने की जरूरत है।
इन सबके अलावा एक सबसे अहम बात और है राजनीतिक इच्छाशक्ति। राजनीतिक इच्छाशक्ति तो चाहिए ही, लेकिन लोकतंत्र हर पांच साल में परीक्षा लेता है। अगली सरकार क्या इस योजना को इसी दृढ़ता के साथ लागू करेगी? अंदरुनी रूप से कई विरोध के स्वर गाहे-बगाहे उठते रहते हैं, उनका ऐसी योजनाओं पर क्या असर होगा? ये कुछ अलग तरह की दिक्कतें हैं। राजनीतिक दल यदि छत्तीसगढ़ को जैविक राज्य बनाने के लिए एक साथ खड़े हो जाएं, तो यह मुश्किल नहीं, लेकिन मुश्किल तो राजनीतिक दलों का एक साथ खड़े होना ही है।

यशवंत गोहिल

फेसबुक से साभार

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