अलविदा दिल्ली वाले साहब

दिल्ली वाले साहब चले गए। उनके जाने का दर्द पता नहीं आप और हम कितना महसूस कर रहे हैं, लेकिन उन बच्चों का हाल जाने क्या होगा, जब उन्हें पता चलेगा कि उनके दिल्ली वाले साहब नहीं रहे। जंगल से दूर शहर की चकाचौंध और सुविधाओं से भरी ज़िंदगी में दो घंटे के लिए जंगल हो आना अलग बात है और पूरी ज़िंदगी वहां आदिवासी बच्चों के लिए काम करना अलग बात है। प्रो. पी.डी. खेरा ने अपनी पूरी ज़िंदगी अचानकमार, लमनी, छपरवा जैसे इलाकों के बच्चों का जीवन संवारने में लगा दी। आप और हम जैसे लोग दो घंटे वहां सेवा कार्य करने के बाद अपने आपको पुनित समझने वालों में से हैं।
वो रास्ते प्रो. पीडी खेरा के नाम से जाने जाते थे। अचानकमार से आगे जैसे ही हम लमनी पहुंचते और पूछते- खेरा सर हैं क्या? बच्चे मुस्कुराते हुए जवाब देते..कौन, दिल्ली वाले साब! ये तबस्सुम और मासूमियत पता नहीं अब मिलेगी या नहीं।

प्रोफेसर पीडी खेरा। उम्र 90 वर्ष। काम आदिवासी बच्चों को पढ़ाना, लिखाना, सिखाना और उन्हें समाज में आत्मनिर्भर बनाना। हाथों में एक थैला लिए और उस थैले में खाई से लेकर सुई धागे तक। खाई यानी कि मुर्रा। जब वे बच्चों को अपने पास बुलाते, तो बच्चों को उस खाई की लालच खींच लाती थी। फिर वे हैंडपंप के पास बैठकर उन्हें नहलाते थे, कंघी करना सिखलाते थे, हाथ-पांव में तेल लगाकर साफ सुथरा रहने की शिक्षा देते थे। कहीं किसी बच्चे के कपड़े फटे दिख जाते, तो उन्हें डांटते थे और कहते हैं फटे कपड़े क्यों पहने। लाओ, इन्हें सी देता हूं। उन बच्चों के कपड़ों को अपने सुई धागे से सीकर फिर से उन्हें देते थे। प्रो. खेरा का मानना था ये बच्चे उस समाज से बेहद दूर हैं, जहां विलासवादी संस्कृति है, लेकिन ये बच्चे उस समाज से भी दूर है, जो इनके लिए बेहद जरूरी है।
बिलासपुर से तकरीबन 80 किलोमीटर दूर जब हम लमनी जाते, तो कई बार पता चलता कि सर तो छपरवा में हैं। हम फिर से वापस करीब 20 किलोमीटर छपरवा आते। वहां कई बार वे अपने स्कूल में अकेले बैठे होते। प्लास्टिक की कुर्सियां, आक्सफोर्ड की डिक्शनरी और टेबल। बाहर बारिश की बूंदें हमारा स्वागत कर रही होतीं। बेहद धीमे स्वर में बोलते- बताइए, कैसे आना हुआ? हमने कहते- कुछ खास नहीं, एक छोटा सा कैंपेन चला रहे हैं। जरूरतमंद बच्चों के लिए जो कुछ हो सकता है, कर रहे हैं। वी कैन द मैजिक ऑफ 100 की टीम में हार्दिक कक्कड़ और कमल दुबे भी उस दिन साथ ही थे। हार्दिक उनसे बात कर रहे थे और जरूरतें नोट करते चले जा रहे थे। वे जैसे जैसे उनसे संवाद करते जा रहे थे, उनकी चेहरे की झुर्रियों को भी पढ़ते चले जा रहे थे। थोड़ी देर बाद खेरा सर ने कहा, चलिए आपको भजिया खिलाते हैं। वहां से उठकर पहुंचे मोड़ के पास उस छोटे से ढाबे में, जो वहां का कम से कम थ्री स्टार का होटल तो होगा ही। जब तक भजिया निकलती, एक शख्स वहां पहुंच गया। थोड़ा सा बहका हुआ था। शराब पी रखी थी। सीधे खेरा सर के पांवों में गिरकर बोला, साहेब, मैं तुम्हर करा मिले आए रहेव सात सौ रुपया खर्चा करके…तुम हमर गांधी बबा हो…। खेरा सर, ने हरी ओम कहकर उससे हाथ जोड़ लिया। वह आदमी अपनी बात कहे ही जा रहा था। लेकिन नशे में भी उसने एक बार भी बदतमीजी नहीं की। वास्तव में ये प्रो. खेरा की कमाई हुई पूंजी थी।

प्रोफेसर खेरा, देश की राजधानी दिल्ली की यूनिवर्सिटी की चकाचौंध छोड़कर यहां आए थे। दिल्ली में प्रोफेसर की नौकरी का मोह किसे नहीं होता? प्रोफेसर पीडी खेरा विरले हैं, जिन्होंने आदिवासियों की जीवनशौली बदलने की सिर्फ पहल नहीं की, बल्कि नौकरी के बाद 1985 में अचानकमार आकर बस गए।

डाॅ. खेरा वनग्राम लमनी में आदिवासियों की तरह ही झोपड़ी में रहते थे। एक कमरे के उस घर में किताबों का अंबार था। मिट्टी की दीवारें थीं। एक पलंग था। रोशनी के लिए चंद सामान थे। कुल मिलाकर पांच सात बर्तन होंगे। स्टोव था। उस कमरे का कोना ही पूरा किचन था। चूंकि उम्र बहुत ज्यादा हो गई थी इसलिए रूम से लगकर ही टॉयलेट गांववालों ने मिलकर बनाया था।

प्रो. खेरा के शब्दों में आदिवासियों के जीवन में बड़े बदलाव की जरूरत नहीं है। बस उन्हें सिखाना था कि रोज नहाना है, साफ कपड़े पहनने हैं। स्कूल में बच्चों को शिक्षा दिलानी है, ताकि वे कामयाब इंसान बनें। उन्होंने छोटे बच्चों को हैंडपंप के पास बुलाकर नहलाना शुरू किया। उनके मैले-कुचैले कपड़े साबुन से धो दिए और उन्हें वहीं सुखाकर उन्हें पहनाया भी। थोड़ा सा तेल लगा दिया और चना-मुर्रा खिलाकर उन्हें उनके घर के लिए विदा किया। बस यह रोज की दिनचर्या बन गई। बच्चे रोज नहाने लगे और पुराने, पर साफ कपड़े पहनने लगे हैं।

प्राइमरी के बाद आसपास कोई मिडिल स्कूल नहीं था। हाईस्कूल भी शिवतराई में था। ऐसे में प्रो. खेरा ने कुछ लोगों के सहयोग से छपरवा में हाईस्कूल स्थापित किया और बच्चों को अंग्रेजी की शिक्षा दी। पिछले कुछ सालों से वे आदिवासी बच्चों में चित्रकारी के प्रति रुझान पैदा करने में लगे हैं। वे कहते कि बच्चे प्रकृति के सच्चे चित्रकार होते हैं। जो देखते हैं, उसे बना देते हैं। कैसे पूछने पर वे बच्चों के चित्र दिखाने लगते। चित्रों में आदिवासी जीवन की कहानियां झलकती। रोजमर्रा में घटित होने वाली घटनाओं को बच्चों ने अपने चित्र का विषय चुना था। मछली पकड़ना, पेड़ काटना, शिकार करना, जंगली जानवरों के चित्र आदि। चित्रों को देखने से लगता है कि बच्चों में रंगों की समझ गहरी है। रंग-बिरंगे फूल, काली बिल्ली, और लाल सूरज बच्चों ने सफेद कागज पर उकेरे थे। लेकिन इन रंगों को उन आदिवासी बच्चों के ज़ेहन से बाहर निकालने का काम प्रो. खेरा ने किया था।
हम जब उनसे बात कर रहे थे, तो उन्होंने कहा कि काश कोई बच्चों को डांस सिखा दे, कोई नाटक सिखा दे, कोई मंच दिला दे, माइक दिला दे..उनका फोकस आउट साइड स्टडीज़ की ओर था। लेकिन वे बेहद मूलभूत चीजों के लिए ही जूझ रहे थे। न वहां बिजली, न गाड़ी। बच्चे भी 15-15 किलोमीटर दूर से पैदल आते हैं। जब इतनी दूर से आते हैं, तो खेरा सर उनके लिए खुद पोहा बनवाते हैं। हमें भी न्यौता दिया उन्हें अगली बार बच्चों के साथ भोजन का।
वास्तव में उन्हें देखकर ऋषि जीवन का अंदाजा होता है। कैसे अपना जीवन दूूसरों के लिए समर्पित किया जाता है, उन्हें देखकर सीखा जा सकता है। पिछले 30 से ज्यादा सालों उन्होंने सिर्फ यहां के बच्चों की जीवन शैली बदलने में गुजार दिए। आज उनके स्कूल के बच्चो अभावों के बावजूद अच्छी अंग्रेजी बोलते हैं। अच्छी हिंदी बोलते हैं और आत्मनिर्भर होने की शिक्षा हासिल करते हैं।
पिछले कई दिनों से जब वे बीमार चल रहे थे और अपोलो में उनका इलाज चल रहा था। उनके निधन की खबर जैसे ही आई, लोग स्तब्ध हो गए। मुझ जैसे कुछ लोग इस बात से अंजान नहीं थे कि वे जल्द ही अनंत यात्रा के लिए जाने वाले हैं। अंतिम दिनों में उनका स्वास्थ्य बहुत ही खराब था। आइए हम सब उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करें..

यसवंत गोहिल के फ़ेसबुक वॉल से

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