कोलकाता – शारदीय नवरात्र के मौके पर देश में दुर्गा पूजा का त्योहार हर साल पूरे धूमधाम से मनाया जाता है. इसमें हर इलाके की अपनी सांस्कृतिक विशेषताएं जुड़ी होती हैं. बात चाहे मैसुरु के जंबू सावरी दशहरे की हो या कुल्लू-मनाली के दशहरे की या गुजरात के गरबा नृत्य के साथ मनाए जाने वाले उत्सव की, देश के हर इलाके में इस त्योहार का अलग ही रंग है.
पर पश्चिम बंगाल का दशहरा इन सबसे अलग है. 10 दिनों तक चलने वाले इस त्योहार के दौरान वहां का पूरा माहौल शक्ति की देवी दुर्गा के रंग का हो जाता है. बंगाली हिंदुओं के लिए दुर्गा और काली की आराधना से बड़ा कोई उत्सव नहीं है. वे देश-विदेश जहां कहीं भी रहें, इस पर्व को खास बनाने में वे कोई कसर नहीं छोड़ते.
ऐसे में एक स्वाभाविक सी जिज्ञासा उठती है. आखिर वह कौन सी घटना या परंपरा रही जिसके चलते बंगाल में शक्ति पूजा ने सभी त्योहारों में सबसे अहम स्थान हासिल कर लिया.
कृत्तिबास ओझा का योगदान सबसे अहम
आधुनिक हिंदी साहित्य के ओजस्वी कवियों में से एक सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने आज से करीब 80 साल पहले एक लंबी कविता लिखी थी-’राम की शक्तिपूजा.’ इसकी विशेषता यह है कि कई आलोचक इसे न केवल निराला जी बल्कि हिंदी साहित्य की भी सबसे अच्छी कविता मानते हैं. इस कविता का कथानक यह है कि इसमें राम और रावण के युद्ध का वर्णन किया गया है. राम ने इसमें रावण को हराने के लिए शक्ति की देवी ‘दुर्गा’ की आराधना की है.
कहा जाता है कि निराला जी ने इस कविता का कथानक पंद्रहवीं सदी के सुप्रसिद्ध बांग्ला भक्तकवि कृत्तिबास ओझा के महाकाव्य ‘श्री राम पांचाली’ से लिया था. पंद्रहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में रची गई यह रचना वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में लिखी गई ‘रामायण’ का बांग्ला संस्करण है. इसे कृत्तिबासी रामायण’ भी कहा जाता है. इसकी खासियत है कि यह संस्कृत से इतर किसी भी अन्य उत्तर भारतीय भाषा में लिखा गया पहला रामायण है. यह तुलसीदास के रामचरित मानस के रचे जाने से भी डेढ़ सदी पहले की बात है.
कृत्तिबासी रामायण की कई मौलिक कल्पनाओं में रावण को हराने के लिए राम द्वारा शक्ति की पूजा करना भी है. आलोचकों के अनुसार इस प्रसंग पर बंगाल की नारी-पूजा की परंपरा का साफ असर है. कृत्तिबास ओझा ने इसी परंपरा का अनुसरण करते हुए अपने महाकाव्य में शक्ति पूजा का विस्तार से वर्णन किया. महाकवि निराला ने अपना काफी समय बंगाल में गुजारा था. आलोचकों के अनुसार इसलिए उन्हें भी इस प्रसंग ने मोहित किया और अंतत: उन्होंने इसे अपनी कविता का कथानक बनाने का फैसला लिया.
इस महाकाव्य में निराला ने इसका वर्णन किया है कि किस तरह नैतिक शक्तियों के स्वामी भगवान राम, आसुरी शक्तियों के मालिक रावण से लंका की लड़ाई में हार रहे हैं. अपनी इस दशा से विचलित राम तब कहते हैं, ‘हाय! उद्धार प्रिया (सीता) का हो न सका.’ इसी समय उनके अनुभवी सलाहकार जांबवंत सुझाते हैं कि वे यह लड़ाई इसलिए हार रहे हैं कि उनके साथ केवल नैतिक बल है. वे आगे कहते हैं कि कोई भी लड़ाई केवल नैतिक बल से नहीं जीती जा सकती, उसके लिए तो ‘मौलिक शक्ति’ का साथ जरूरी है. जांबवंत कहते हैं, ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन! छोड़ दो समर जब तक सिद्धि न हो, रघुनंदन!!’ जांबवंत की इन बातों का आशय दुर्गा की नौ दिनों तक कठोर साधना से था. राम ने अंतत: ऐसा करके शक्ति की देवी को प्रसन्न कर सिद्धि प्राप्त की और रावण को हराने में कामयाब हुए.
बंगाल में नारी-पूजा की परंपरा प्राचीन समय से प्रचलित है
बंगाल में नारी-पूजा की परंपरा प्राचीन समय से प्रचलित है. इसलिए वहां शक्ति की पूजा करने वाले शाक्त संप्रदाय का काफी असर है. दूसरी ओर वहां वैष्णव संत भी हुए हैं, जो राम और कृष्ण की आराधना में यकीन रखते हैं. पहले इन दोनों संप्रदायों में अक्सर संघर्ष होता था. कृत्तिबास ओझा ने अपनी रचना के जरिए शाक्तों और वैष्णवों में एकता कायम करने की काफी कोशिश की. आलोचकों के अनुसार राम को दुर्गा की आराधना करते हुए दिखाकर वे दोनों संप्रदायों के बीच एकता और संतुलन कायम करने में सफल रहे. इस प्रसंग से राम का नायकत्व तो स्थापित हुआ ही, शक्ति यानी नारी की अहमियत भी बरकरार रही.
कृत्तिबासी रामायण में तमाम चुनौतियों के बीच सुंदर सामंजस्य होने के चलते यह धीरे-धीरे पूरे बंगाल में मशहूर होती चली गई. इसके साथ दुर्गा भी वहां के जनमानस में लोकप्रिय होती गईं. यही नहीं पिछली पांच शताब्दियों में दुर्गा पूजा और दशहरा न केवल बंगाल बल्कि देश के दूसरे इलाकों का भी महत्वपूर्ण त्योहार बन चुका है. इस पर बंगाल का असर यदि देखना हो तो दुर्गा की प्रतिमाओं की बनावट को देखा जा सकता है जिन पर बंगाली मूर्तिकला का साफ असर है.