बिलासपुर -सियासत में चुनावी साल पाला बदली और दाखिले का होता है। छत्तीसगढ़ में भी ये सिलसिला जारी है। नेताओं में दलों की पालाबदली का दौर चल रहा है तो पत्रकारिता, लोकप्रशासन और समाजसेवा जैसे क्षेत्र से जुड़े लोगों में दाखिले का। दाखिला लेने वालों में वरिष्ठ पत्रकार रुचिर गर्ग का भी नाम जुड़ गया है, उन्होंने अपनी सियासी यात्रा के लिए कांग्रेस की बस पकड़ी है।
पालाबदली करने वाले नेता सिद्धांतों और अंतरात्मा की दुहाई देकर मौकापरस्ती की तोहमत को खारिज करते हैं तो दल विशेष में दाखिला लेने वाले जनसेवा के उच्च आदर्शों की आड़ लेकर अपनी महत्वाकांक्षा को छिपाते हैं।
कुछ दिनों पहले रायपुर के कलेक्टर रहे ओपी चौधरी भी अपनी अच्छी खासी कलेक्टरी छोड़कर सियासी पारी शुरू कर चुके हैं। हालांकि रुचिर गर्ग ने चौधरी से उलट सत्तापक्ष की बजाय विपक्ष का दामन थामा है।
दिलचस्प बात यह है कि अपने साथी रुचिर गर्ग के कांग्रेस में प्रवेश को क्रांतिकारी कदम ठहराने वाली इसी पत्रकार बिरादरी ने तब ओपी चौधरी की मंशा पर सवाल उठाते हुए उन्हें भाजपा का एजेंट निरूपित किया था। कलेक्टर रहने के दौरान के प्रशासनिक कार्यव्यवहार की विवेचना पर आधारित कुल जमा पत्रकारीय विश्लेषण यही था कि ओपी चौधरी तो भाजपा के पिट्ठू निकले। यानी सहूलियत भरा सरल निष्कर्ष यह है कि दिक्कत ओ पी चौधरी के राजनीति में प्रवेश से नहीं बल्कि उनके भाजपा में प्रवेश से थी।
ओपी चौधरी ने प्रशासनिक सेवा की बजाय राजनीति को जनसेवा के लिए बेहतर जरिया बताया था। पत्रकारों का तब का सहज सवाल था कि जब कलेक्टर रहते जनसेवा की जा सकती थी तो फिर नेता बनने की चाह क्यों? सवाल तो फिर यह भी मौजूं है कि समाज के शोषित, वंचित वर्ग की बेहतरी के लिए जब आवाज पत्रकारिता के जरिए बेहतर तरीके से मुखर की जा सकती है तो फिर दलीय दलदल में घुसने की जरूरत क्यों? पत्रकार तो वैसे भी सरकार का स्थाई विपक्ष होता है तो फिर अस्थाई विपक्ष बनने की मजबूरी आखिर कैसी?
बेशक, राजनीति में अच्छे लोगों की जरूरत है, लेकिन ये नहीं भूलना चाहिए कि रुचिर गर्ग जैसों की पत्रकारिता में कहीं ज्यादा दरकार है। पत्रकारिता को अलविदा कहने के पीछे की वजह और मजबूरी की तथा-कथा तो रुचिर गर्ग ही बताएंगे, लेकिन उनके जाने से पत्रकारिता में सिस्टम की विसंगतियों के खिलाफ कमजोर पड़ती आवाज और मंद हो गई है।
खैर, रुचिर गर्ग ने एक पत्रकार के तौर पर अर्जित साख की कुल जमा पूंजी को सियासत का दामन थाम कर दांव पर लगाया है, तो उन्होंने यह फैसला सोच विचार करके ही लिया होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि उन्हें अपने इस फैसले पर आशुतोष और आशीष खेतान की तरह पुनर्विचार करने की नौबत नहीं आएगी। राजीव शुक्ला बन पाना सबके बस की बात है भी नहीं।