छत्तीसगढ़ के चुनाव हो गए। गली-गली, मोहल्ले-मोहल्ले सिर्फ एक बात की चर्चा, किसकी बनेगी सरकार, कौन बनेगा सीएम,…कई बार तो ऐसा लगता है जैसे लोगों के सब्र का बांध टूट रहा हो…रोज सुबह डॉक्टर की प्रिस्क्रप्शन की तरह जब तक एक-दो सर्वे रिपोर्ट व्हाट्स एप पर नहीं आ जाते, कुछ लोग बेचैन रहते हैं। सर्वे रिपोर्ट मिलते ही एक स्फूर्ति आती है और वे उसे आगे भेजने के लिए नंबरों की तलाश करते हैं। ख़ैर ये एक अलग विषय है। सोशल मीडिया युग में जिस तेजी से सूचनाएं लोगों तक पहुंच रही है, वह भी अचंभित कर देने वाले विश्लेषकों को सामने ला रहा है। लेकिन अच्छी बात यही है, कि सूचनाएं छिप नहीं सकतीं और खतरा ये कि इसकी आड़ में भ्रामक सूचनाएं भी तेजी से फैल जाती हैं। बहरहाल, छत्तीसगढ़ के चुनाव में 76 प्रतिशत मतदान हुआ। यह अच्छा प्रतिशत है। खासकर तब जब हम छत्तीसगढ़ के नक्सल क्षेत्रों की बात करते हैं, जहां फोर्स की छांव में मतदान हुए हैं। अब इनमें कुछ सवाल अहम हैं:-
1. पिछले चुनाव में झीरम घाटी हत्याकांड के बाद जनता का मूड सिर्फ बस्तर तक क्यों बदला? उसकी अनुगूंज पूरे प्रदेश में सुनाई नहीं दी?
2. क्या उस समय एंटी इंकमबेंसी नहीं थी?
3. क्या उस समय भी प्रदेश में जोगी चुनाव के केंद्र में थे, जैसा कि इस बार कहा जा रहा है? हालांिक तब अलग भूमिका में थे, आज अलग भूमिका में।
4. किसानों की कर्जमाफी और धानखरीदी की बात को कहां तक सही माना जा सकता है? जैसा कि कहा जा रहा है कि कांग्रेस के घोषणा पत्र में किसानों की कर्जमाफी की बात ने लोगों को प्रभावित किया है और वह वोट में भी कन्वर्ट हुआ है।
5. क्या सरगुजा और बस्तर मिलकर सरकार बनाते हैं?
ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिनका सामान्य मतदाता भी अपनी बातचीत के दौरान जिक्र कर रहा है।
पहले सवाल पर आते हैं। इस चुनाव में कहा गया कि आज पूरे प्रदेश में रमन सरकार के खिलाफ बदलाव का नारा काम कर गया। कांग्रेस के ‘वक्त है बदलाव का’ लोगों की ज़ुबान पर चढ़ गया। क्या परिवर्तन रैली जो झीरम कांड के समय निकली थी, वह लोगों की ज़ुबान पर नहीं थी? आप ये जरूर कह सकते हैं कि कांग्रेस के बड़े नेताओं की रिक्तता ने उस चुनाव को कमजोर कर दिया था, वर्ना जिस तरह से नंद कुमार पटेल यात्राएं कर रहे थे, उस वक्त का माहौल इस बार से कहीं ज्यादा कांग्रेस के पक्ष में दिख रहा था। तो आख़िर कांग्रेस के यही नेता उस वक्त परिवर्तन को बदलाव की शक्ल देने से क्यों चूक गए? तब और आज में एक बड़ा फ़र्क ये जरूर है कि तब अजीत जोगी कांग्रेस में थे, आज नहीं हैं।
दूसरा सवाल एंटी इंबमबेंसी का है। मुझे याद आता है कि एंटी इंकमबेंसी उस वक्त आज से ज्यादा थी। नंदकुमार पटेल जहां जाते, उन्हें मिल रहे जनसमर्थन से सरकार भी हलाकान थी। लोग जिस तरह आज बदलाव की बात कर रहे हैं, तब परिवर्तन की बात किया करते। पूरे प्रदेश में कांग्रेस के संगठन को खड़ा कर दिया था स्व. नंदकुमार पटेल ने। सरकार के खिलाफ माहौल था। लेकिन जिस दिन परिणाम आए, सरकार भाजपा की थी।
तीसरा सवाल अजीत जोगी की भूमिका को लेकर है। भूपेश बघेल ने अगर किसी के खिलाफ एकतरफा मोर्चा खोला, तो वह अजीत जोगी ही हैं। बीके हरिप्रसाद से टशन तो मंच पर आ गई थी और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का जोगी से मोहभंग का दौर शुरू हो चुका था। कांग्रेस की सियासत का आलम यहां तक आ पहुंचा कि कांग्रेस के बड़े नेता जोगी को रमन की बी टीम भी कहने लगे। पिछले चुनाव तक टिकट वितरण में अजीत जोगी की भूमिका रही है और दहाई संख्या में उनके कैंडिडेट्स पिछले चुनाव में उतरे थे। सीन जून 2016 से बदलना शुरू हुआ, जब कांग्रेस से अलग होने के बाद जोगी ने अपनी अलग पार्टी बना ली। दो साल का समय भी मिला उन्हें अपने संगठन को खड़ा करने के लिए। जोगी कांग्रेस इस चुनाव में कोई सीट जीत पाएं या न जीत पाएं, लेकिन दो तथ्यों से कोई इनकार नहीं कर सकता। पहला यह कि जोगी कांग्रेस का संगठन और नेटवर्क खड़ा हो चुका है, वह क्षेत्रीय भूमिका में दिख रही है और दूसरा यह कि भारतीय जनता पार्टी को जोगी कांग्रेस से अप्रत्यक्ष रूप से ज्यादा फायदा दिख रहा है। 11 दिसंबर को नतीजे यह बताएंगे। कांग्रेस से अलग होकर असंतुष्ट कांग्रेसियों और जोगी समर्थकों की फौज ने भाजपा का नुकसान उतना नहीं किया होगा, जितना कांग्रेस का। शायद यही कारण है कि विश्लेषक यह मान रहे हैं कि जोगी जहां-जहां मजबूत होंगे, वहां भाजपा को फायदा मिलेगा। दूसरे शब्दों में नतीजों में यह देखना होगा कि जोगी ने कहां अपनी टीम को मजबूत किया और कहां वे कमजोर रहे।
चौथा सवाल जो हर स्तर पर किया जा रहा है, वह है कांग्रेस के घोषणा-पत्र का, जिसमें किसानों की कर्जमाफी और धान खरीदी की बात सबसे ज्यादा की जा रही है। कहा जा रहा है कि मंडियों में धान नहीं आ रहा है। पिछले साल धान खरीदी 15 नवंबर के बाद शुरु हुई थी और इसके लिए जनवरी अंतिम तक समय रहता है। इस बार खरीदी 1 नवंबर से शुरू हुई। 1 नवंबर से लेकर 25 नवंबर तक दीपावली और एकादशी तक त्यौहारों का सिलसिला चला। इस बीच दोनों चरणों के चुनाव भी हुए। पहले चरण के चुनाव के एक दो दिन पहले कांग्रेस ने अपना घोषणा पत्र जारी किया। इस बात में कोई संदेह नहीं कि कांग्रेस का घोषणा-पत्र बहुत अच्छा बना, लेकिन इसे लाया बहुत देर से गया। इतनी देर से लाने के बावजूद इसमें किसानों के बिन्दु गांव-गांव तक पहुंचे हैं और गांव-गांव में इसकी चर्चा रही है। मैदानी इलाकों में मतदाताओं के मुंह से काफी कहा-सुना गया, लेकिन यह फ्लोिटंग वोट में कन्वर्ट पूरी तरह कन्वर्ट हुआ होगा, यह कहना जल्दबाजी है। प्रभाव जरूर पड़ा है। ध्यान देने वाली बात यह है कि फ्लोटिंग वोट ही सरकार बनाता और हटाता है। प्रभाव होना अलग विषय है, कन्वर्ट होना अलग।
अब बात पांचवें सवाल की कि सरगुजा और बस्तर मिलकर सरकार बनाते हैं। पिछले चुनाव को देखें, तो बस्तर की 12 में से 8 सीटें कांग्रेस के पास थीं, सरगुजा की 14 में से 7 और 7 सीटें कांग्रेस और भाजपा के पास थीं। इस गणित को देखें, तो सरगुजा बस्तर से सरकार कांग्रेस की बननी थी, लेकिन बनी भाजपा की। दरअसल पिछली बार फैक्टर रायपुर संभाग साबित हुआ सरकार बनाने का। रायपुर की 20 में से 15 सीटें भाजपा ने जीतीं और कांग्रेस को सिर्फ 5 सीटें मिलीं। इसलिए यह कहना कि बस्तर और सरगुजा मिलकर सरकार निर्धारित करते हैं, गलत है। विधानसभा चुनाव में एक एक सीट का महत्व है और मतदाता अब बस्तर का भी जागरूक है, जितना रायपुर का।
इस तरह इन कयासों और सवालों से जूझते हुए अगर निष्कर्ष की बात पूछी जाए, तो मुकाबला एकतरफा नहीं है। कांग्रेस निश्चित ही मजबूत स्थिति में है। कांग्रेस संगठन के अंदरुनी कलह के बावजूद यह चुनाव संगठनात्मक रूप से लड़ा गया चुनाव है, जिसमें दिखता है कि कांग्रेस के आपसी विवादों से जनता ने किनारा किया है और मान लिया है कि यह उनका आपसी मामला है। उधर, भाजपा ने अपने खिलाफ उठे हर बागी सुर को समय रहते शांत कर लिया था, नहीं तो यह चुनाव वह टिकट घोषणा के वक्त ही हार जाती। दूसरे भाजपा की एक कमजोरी इस बात से भी साबित होती है कि हर भाजपा नेता अपने आपसी संवाद में जोगी का जिक्र कर रहा है। इसका तात्पर्य यह लगता है कि भाजपा को अपने काम से ज्यादा जोगी के नाम पर भरोसा है। ऐसे मंे निष्कर्ष यही है कि जोगी जितना काटेंगे, कांग्रेस को उतना बांटेंगे और भाजपा को फायदा मिलेगा। यह चुनाव इस बात को भी साबित करेगा कि चुनाव लड़ा जाता है या फिर मैनेज किया जाता है। यह चुनाव इस बात को भी साबित करेगा कि प्रत्याशी अहम है या पार्टी। यह चुनाव इस बात को भी साबित करेगा कि प्रदेश का एक चेहरा महत्वपूर्ण है या प्रत्याशी। यह चुनाव इस बात को भी साबित करेगा कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का भविष्य क्या होगा, क्योंकि छत्तीसगढ़ में यदि इस बार वह सत्ता में नहीं आई, तो उसके आक्सीजन की संभावनाएं क्षीण हो जाएंगी? भाजपा भी इस चुनाव को जीते या हारे, वह इस बात को मजबूर करेगा कि छत्तीसगढ़ में नए सिरे से सोचने की जरूरत है। इंतजार 11 दिसंबर का।
-पत्रकार यशवंत गोहिल के फेसबुक वाल से