एक पत्रकार की हत्या : मनीष कुमार

आजादी के बाद भी दशकों तक पत्रकार, भारत में स्वतंत्र लोकतंत्र की रक्षा के लिए संघर्ष करते रहे। ऐसे कई नाम हैं जिन्होंने कलम की ताकत से देश के सर्वोच्च पद पर बैठे सत्तासीनों को अपने कदमों में झुकाया। उनके कलम की ताकत इतनी थी कि एक पैसे के अखबार में छपने वाले एक कॉलम ने अपनी वैचारिक क्रांति से न जाने कितने आंदोलनों को जन्म दिया,जिससे देश की दशा और दिशा में ऐतिहासिक परिवर्तन हुए । उस समय न तो सूचना का अधिकार था न ही अभिव्यक्ति की उतनी स्वतंत्रता । एक खबर की कीमत एक पत्रकार की जान के बराबर होती थी। न्यायालय और पुलिस जब अपने आप में एक भय का पर्याय हुआ करते थे और प्रशासनिक सत्ता किसी चरम पंथी शासक के संगठन की भांति कार्य करने लगी थी ऐसे काले आपातकाल से भी लोकतंत्र की अस्मिता को बचाकर लाने वाले कलमवीरों को आज विज्ञापन दाताओं के समक्ष नतमस्तक देखकर मन में बहुत पीड़ा होती है।

हमारे देश में मीडिया के महत्व को बहुत सी उपमाएं मिली हुई है कोई इन्हें देश के लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहता है,कोई स्थायी विपक्ष कहता है तो कोई सरकार का सजग प्रहरी कहता है। ऐसे में मीडिया की भी यह जवाबदेही बनती है कि अपने व्यापारतंत्र अखबार के कुछ पन्ने, 24 घंटे के अपने ऑन एयर टाइम में से थोड़ा समय देशतंत्र के लिए भी सुरक्षित रखें। पत्रकार होने का अर्थ है सिस्टम की खामियां खोजना और उसका संभावित हल अपने माध्यम से सरकार के सम्मुख प्रस्तुत करना पर आजकल ऐसा बहुत कम होता है। सूट बूट वाले एंकरों ने प्रायोजित पैनलिस्टों के साथ राजनीति और धर्म के गठजोड़ की पंचायत करते करते कब खोजी पत्रकारिता की हत्या कर दी पता ही नहीं चला। स्वस्थ मस्तिष्क का हर व्यक्ति यह आसानी से समझता है कि शाम होते टीवी पर छा जाने वाली इनकी बहस का उद्देश्य समस्या का हल ढूंढना तो कतई नहीं है।

सत्ताधारी दल मीडिया का सबसे आसान निशाना रहती है क्योंकि जिसके पास सत्ता है ,जो निर्णय ले रहा है और जो काम कर रहा है उसमें ही आप खामियां और गलतियां निकाल सकते हैं। लेकिन आज के अधिकतर मीडिया समूह सत्ता के रागदरबारी तक ही सीमित रह गए हैं। पिछले दो महीनों में सत्ता बदलने के बाद मेरे गृह राज्य छत्तीसगढ़ में सुर्खियों की बदलती परिभाषा इसकी पुष्टि करती है। पूर्वाग्रह से ग्रसित पत्रकारों की रिपोर्टिंग और समय-समय पर बदलते अपने खास एजेंडे पर माहौल बनाते मीडिया समूह एक खतरे की घंटी की तरह हैं जो प्रत्येक मतदाता को सचेत करते हैं कि अपना मत निर्धारण सोच समझ कर करें, उनकी खबरें देख कर नहीं।

पत्रकारिता का पेशा ही इतना पवित्र और सम्मानजनक है कि विपरीत परिस्थितियों में भी इसकी आलोचना मेरे मन को आत्मग्लानि से भर रही है,परन्तु निराशा के इन क्षणों में भी उम्मीद की किरण लिए कुछ कलमकार अभी भी सत्ता से अपना संघर्ष जारी रखते हुए मजबूत विपक्ष बने हुए हैं। यह बात अलग है कि उनकी खबरें सुर्खियां नहीं बटोरती पर चींटी बनकर हाथी के नाक में दम जरूर करती हैं।

लेखक : मनीष कुमार

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